बोझ से दुहरी
बोझ से दुहरी दिखाई देती हैं
ये सदी ठहरी दिखाई देती हैं।
दुःख —दर्द की बातें करे जहाँ
वो सभा बहरी दिखाई दोती हैं।
गाँव में आतंक है जिसका
सभ्यता शहरी दिखाई देती हैं।
अगस्त्य की तरह पीने लगे हैं
जो नदी गहरी दिखाई देती हैं।
जूठे बर्तन माँजती भूख में
सेठ की महरी दिखाई देती हैं।
-महेश मूलचंदानी
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