Thursday, December 21, 2006

बोलने का जोश रखते हैं

बोलने का जोश रखते हैं
पर जुबाँ खामोश रखते हैं

अपने अपने अर्थों का हम
एक शब्दकोश रखते हैं

वे कसौटी लिए फिरते हैं
और बढ़कर दोष रखते हैं

दानिशमन्द कुछ नहीं करते
वे सिर्फ अफसोस रखते हैं

ग़रीब हैं इस क़दर नीचे
जैसे पैर पोश रखते हैं


-महेश मूलचंदानी

मातमी लिबास लगती है

मातमी लिबास लगती है
ज़िन्दगी उदास लगती है

जब टूटती है आस्था तो
काँच का गिलास लगती है

जीवन के छन्द को पढ़ कर
रोटी अनुप्रास लगती है

आदमी तो जिन्दा है मगर
आदमीयत लाश लगती है

कौन इसकी मौत पर रोये
नैतिकता सास लगती है

-महेश मूलचंदानी

आज यही अफसोस रहा है

आज यही अफसोस रहा है
कथनी का ही कोश रहा है

झूठ हुआ वाचाल बहुत है
सत्य सदा खामोश रहा है

नगर बन्द नारे हड़तालें
केवल इतना जोश रहा है

उन माथों पर मुकुट धरे हैं
पहले जिन पर दोष रहा है

जगा रहे वे ही जन जन को
गायब जिनका होश रहा है

-महेश मूलचंदानी

है देश समस्याओं से

है देश समस्याओं से तंग देखिये
और उन्हें सूझता हुड़दंग देखिये।

ताकतें फौलाद सी लिये हुए हैं जो
आज उन पे चढ़ रहा है जंग देखिये।

जो हमारा है वहीं गन्तव्य आपका
दोंनों नहीं हैं राह पर संग देखिये।

कीचड़ उछालकर हम‚ होली मना रहे
पिचकारियों में नहीं है रंग देखिये।

शांति बनाये रक्खें जो लोग कह रहे
शांति उनकी बदौलत है भंग देखिये।

सियासी दाँव—पेच का है दृश्य देश में
हम देख देख हो रहे हैं दृग देखिये।

-महेश मूलचंदानी

बोझ से दुहरी

बोझ से दुहरी दिखाई देती हैं
ये सदी ठहरी दिखाई देती हैं।

दुःख —दर्द की बातें करे जहाँ
वो सभा बहरी दिखाई दोती हैं।

गाँव में आतंक है जिसका
सभ्यता शहरी दिखाई देती हैं।

अगस्त्य की तरह पीने लगे हैं
जो नदी गहरी दिखाई देती हैं।

जूठे बर्तन माँजती भूख में
सेठ की महरी दिखाई देती हैं।

-महेश मूलचंदानी
***

पापों का सम्मान हुआ है

पापों का सम्मान हुआ है
पुण्यों का अपमान हुआ है

अमृत सब साँपों ने पीया
उपलब्ध हमें विषपान हुआ है

सत्य नहीं उच्चार सके हम
झूठ बड़ा आसान हुआ है

चरित्र नहीं है पास किसी के
दरिद्र बड़ा इंसान हुआ है

ऊँचे महल बड़े दानी हैं
फुटपाथों का दान हुआ है

आज नहीं मुस्काने दिखतीं
ये जीवन श्मशान हुआ है

-महेश मूलचंदानी