गज़ल
Thursday, December 21, 2006
मातमी लिबास लगती है
मातमी लिबास लगती है
ज़िन्दगी उदास लगती है
जब टूटती है आस्था तो
काँच का गिलास लगती है
जीवन के छन्द को पढ़ कर
रोटी अनुप्रास लगती है
आदमी तो जिन्दा है मगर
आदमीयत लाश लगती है
कौन इसकी मौत पर रोये
नैतिकता सास लगती है
-महेश मूलचंदानी
posted by नर्मदा तीरे @
9:53 AM
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